जितेन्द्र चौधरी, प्रधान संपादक, विशाल इंडिया हिंदी दैनिक
“जब साधु-संत भी सत्ता पाने के लिए उछल-कूद करने लगें तो समझ जाना, ताकत सत्ता में है, ईश्वर में नहीं!!” — यह कथन ओशो का ही नहीं, आज के दौर का तीखा और सटीक व्यंग्य भी है।
हम उस देश में जी रहे हैं जहाँ सदियों से साधु-संतों को त्याग, तपस्या और सत्य का प्रतीक माना गया। वे सत्ता से दूर रहते थे, राजाओं को धर्म और न्याय का मार्ग दिखाते थे, लेकिन स्वयं राजनीति से विरक्त रहते थे। परंतु आज दृश्य बदल गया है। अब संतों की गद्दियाँ चुनावी मंचों में बदल चुकी हैं और धर्म की कथाएं वोटबैंक में तब्दील हो गई हैं।
सत्ता का नया साधन: धर्म
आश्रमों से उठकर अब कुछ चोलेधारी सीधे राजधानी की ओर बढ़ चले हैं। उनका भाषण आध्यात्मिक नहीं, अब रणनीतिक होता है। उनका मौन अब तप नहीं, एक राजनीतिक मौन है — जो चुनाव से पहले टूटता है और घोषणा-पत्र की तरह गूंजता है। पहले साधु सत्ता को उपदेश देते थे, आज वे सत्ता की ओरदली बनकर खड़े हैं।
जो कभी गुफाओं में ध्यानस्थ थे, वे अब हेलिकॉप्टरों में उड़ते हैं; जो कभी मोक्ष की बात करते थे, अब मंत्रालयों की चर्चा करते हैं। धर्म की भाषा अब राष्ट्रवाद के लाउडस्पीकर से निकलती है और ईश्वर का नाम अब नारेबाज़ी में खो गया है।
जब ईश्वर मंच से उतरकर पोस्टर पर आ जाए
धार्मिक प्रतीक और देवी-देवताओं की तस्वीरें अब भक्ति के स्थान पर प्रचार सामग्री बन गई हैं। आस्था अब एक राजनीतिक एजेंडा है, और साधु अब विचारधारा का मुखौटा। ये वही दौर है जहाँ मंदिरों से ज़्यादा ध्यान मतों पर है, और जप-तप से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है ‘कैमरा फ्रेम’।
खोखले अध्यात्म की सत्ता यात्रा
जब कोई त्यागी सत्ता की लालसा में पगड़ी बाँध ले, तो समझ लीजिए कि अब उसका मार्ग मोक्ष की ओर नहीं, मंत्रालय की ओर है। ऐसे समय में ओशो की यह बात हमें सोचने पर मजबूर करती है — क्या वास्तव में अब ईश्वर में कोई शक्ति नहीं बची? क्या हम उस युग में पहुँच चुके हैं जहाँ धर्म सिर्फ एक साधन है, सत्ता तक पहुँचने का?
निष्कर्ष
यह समय आत्ममंथन का है। अगर संत राजनीति करने लगे, और राजनीति धर्म करने लगे, तो आम जन को सावधान हो जाना चाहिए। कहीं हम ईश्वर की तलाश में ऐसे लोगों को पूजने न लगें, जिनका असली मकसद सिर्फ सत्ता की चाबी पाना हो।
क्योंकि जब चोले राजनीति के रंग में रंग जाएं, तो ईश्वर सिर्फ एक पोस्टर बनकर रह जाता है — और आस्था एक वोट।